एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य अपने विचारों और भावों को दूसरों तक पहुँचाना चाहता है। समाज में रहते हुए प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों, भावों, इच्छाओं व आवश्यकताओं को दूसरों तक सम्प्रेषित करने के लिए जिस माध्यम का सहारा लेता है वह भाषा ही है। भाषा ही मनुष्य को ईश्वर की वह अद्भुत देन है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। भाषा के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने विचारों एवं भावों को दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करता है बल्कि अपने आसपास के वातावरण से जुडने व ज्ञान ग्रहण करने में भी भाषा महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बहुभाषिकता व द्विभाषिकता आज के युग का प्रमुख लक्षण है और भारत के सन्दर्भ में भाषा की स्थिति और भी विशिष्ट है। एक बहुभाषी देश होने के नाते हमारे देश में लोगों के द्वारा घर, पडोस, व्यापार व शिक्षा में अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। आज हमें सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व भाषाई रूप से भिन्न समूह प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में भारत जैसे बहुभाषी एवं बहुसांस्कृतिक देश में भाषाई विविधता एवं शिक्षा के सम्बन्ध को समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है। 2011 के आँकड़ों के अनुसार भारत में 1.2 अरब लोगों में से 97 प्रतिशत लोग 22 अनुसूचित भाषाओं में किसी एक भाषा का प्रयोग करते हैं वहीं 3 प्रतिशत लोग 92 भाषाओं का प्रयोग अपनी मातृभाषा के रूप में करते हैं। इन भाषाओं में से केवल 41 भाषाएँ विद्यालय स्तर पर प्राथमिक, द्वितीय व तृतीय भाषा के रूप में प्रयुक्त की जाती हैं। इन 41 भाषाओं में से केवल 18 भाषाओं को विश्वविद्यालय स्तर पर अनुदेशन के माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाता है। जिससे स्पष्ट होता है कि उच्चस्तरीय शिक्षा में अन्य भाषा का प्रयोग करने वाले छात्रों को अवश्य ही समस्या का सामना करना पड़ता है। अतः इस शोध पत्र में उच्चशिक्षा के माध्यम से सम्बन्धित चुनौतियों एवं कठिनाइयों को समझने का प्रयास किया गया और पाया गया कि उपरोक्त विषय पर अलग-अलग कमीशन, रिपोर्ट व शिक्षाविदों के विचार जानने के बाद कहा जा सकता है कि शिक्षा में भाषा व माध्यम का मुद्दा आजादी से पूर्व व बाद में हमारे यहां का प्रमुख रहा है, जिसको समझने व सुलझाने के लिए अलग-अलग कमीशन, कमेटी व लोगों ने अलग-अलग समय पर अपने विचार प्रस्तुत किये है लेकिन भारत जैसे बहुभाषी देश में इसका कोई निश्चित हल ढूंढना आसान कार्य नहीं है।